यजुर्वेद चार वेदों में दूसरा है, और इसका संबंध मुख्यतः यज्ञों (sacrifices) तथा धार्मिक अनुष्ठानों से है। इसका उद्देश्य यह है कि व्यक्ति कैसे धर्म के मार्ग पर चलते हुए कर्म (action) द्वारा जीवन को श्रेष्ठ बना सकता है।
"यजुस्" = यज्ञ संबंधित मंत्र
"वेद" = ज्ञान
➡️ यजुर्वेद = यज्ञों से संबंधित ज्ञान और विधियों का संग्रह
मंत्र और ब्राह्मण ग्रंथ (विवरण) एक साथ मिश्रित रूप में होते हैं।
इसका सबसे प्रमुख भाग है – कठ शाखा, तैत्तिरीय संहिता
थोड़ा अव्यवस्थित और जटिल माना जाता है।
इसमें मंत्र और उनके अर्थ या व्याख्या अलग-अलग भागों में है।
सबसे प्रसिद्ध शाखाएँ – माध्यंदिन शाखा और काण्व शाखा
यह ज्यादा सुव्यवस्थित और समझने योग्य मानी जाती है।
विषय | विवरण |
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यज्ञ विधियाँ | अग्निहोत्र, सोमयज्ञ, अश्वमेध, राजसूय आदि के नियम |
वैदिक मंत्र | यज्ञों में बोले जाने वाले देवताओं को संबोधित मंत्र |
धार्मिक कर्मकांड | अर्पण, होम, आहुति, प्रायश्चित्त की विधियाँ |
देवताओं की स्तुति | अग्नि, इंद्र, वरुण, मित्र, सूर्य आदि |
सामाजिक शांति की कामना | जैसे – "शं नो मित्रः शं वरुणः…", जिससे समाज में सुख-शांति हो |
यजुर्वेद कहता है कि मनुष्य को केवल कर्म करना चाहिए, फल की चिंता नहीं करनी चाहिए। यह बाद में भगवद गीता में भी दोहराया गया।
सूर्य, अग्नि, वायु, जल जैसे प्राकृतिक तत्वों की पूजा की जाती है — इनसे संतुलन और समृद्धि आती है।
जीवन में नियम, अनुशासन, सत्य और धर्म के अनुसार कर्म करना आवश्यक है।
यजुर्वेद में कई मंत्र ऐसे हैं जो केवल व्यक्ति नहीं, पूरे समाज के कल्याण की बात करते हैं।
"ॐ द्यौः शान्तिरन्तरिक्षं शान्तिः..."
— यह मंत्र सम्पूर्ण विश्व में शांति की प्रार्थना करता है।
— यह यज्ञ में देवताओं की शक्ति बढ़ाने की कामना करता है।
यजुर्वेद चार वेदों में से दूसरा वेद है, जो मुख्य रूप से यज्ञों और अनुष्ठानों में प्रयोग होने वाले मंत्रों और उनकी विधियों का संग्रह है। यह वेद कर्मकांड प्रधान है और इसमें बताया गया है कि यज्ञ कैसे करना है, किस देवता को क्या अर्पण करना है, और कौन-से मंत्र कब बोले जाने चाहिए।